अध्याय ८ – अक्षरब्रहम योग (सार)

अध्याय ८ – अक्षरब्रहम योग (सार) – अध्याय ७ के अंत मे श्रीकृष्ण बताते है कि मनुष्य किस प्रकार ज्ञान अर्जन करें ?  जिससे वह पूर्णता को प्राप्त कर भगवद्धाम वापस जा सके | अष्टम् अध्याय मे श्रीकृष्ण बताते है कि भगवान के बारे मे जानने की विभिन्न प्रक्रिया है लेकिन भक्ति द्वारा तथा भगवान के भक्त बनकर हम आसानी से श्रीकृष्ण को जान सकते है तथा प्रयाण काल मे परम ज्ञान मे स्थिर होकर भगवान का स्मरण कर भगवद्धाम को प्राप्त कर सकते है |

अध्याय ८ – अक्षरब्रहम योग (सार)

1. भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन के सात प्रश्नों का उत्त्तर देना (१- ४)

2. मृत्यु के समय भगवद-प्राप्ति (५ -१४)

3. शाश्वत अध्यात्मिक जगत तथा अस्थायी जड़जगत (१५ २२)

4. योगी का गंतव्य प्रस्थान समय के अनुसार (२३-२६)

5. भक्तियोग मे सफलता की सुनिशचित्ता (२७-२८)

6. निष्कर्ष

1. भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन के सात प्रश्नों का उत्त्तर देना (१- ४): 

अर्जुन श्रीकृष्ण से ८ प्रश्न करते है |

1. ब्रहम क्या है ?

2. आत्म क्या है ?

3. सकाम कर्म क्या है ?

4. भौतिक जगत क्या है ?

5. देवता क्या है ?

6. यज्ञ का स्वामी कौन है ?

7. वह शरीर मे किस प्रकार रहता है ?

8. मृत्यु के समय भक्ति मे लगे रहने वाले आपको किस प्रकार जान सकते है ?

इनके ७ उत्तर श्रीकृष्ण इसी  अनुभाग मे देते है जबकि ८ प्रश्न का उत्तर सम्पूर्ण अध्याय में देते है |

1.उत्तर – अविनाशी और दिव्य जीव ब्रह्म कहलाता है |

2. उत्तर – ब्रह्म का  नित्य स्वभाव अध्यात्म या आत्म कहलाता है |

3. उत्तर – जीवों के भौतिक शरीर से सम्बन्धित गतिविधि कर्म या सकाम कर्म कहलाती है।

4. उत्तर.- निरन्तर परिवर्तनशील यह भौतिक प्रकृति अधिभूत कहलाती है।

5. उत्तर – भगवान् का विराट रूप, जिसमें सूर्य तथा चन्द्र जैसे समस्त देवता सम्मिलित हैं, अधिदैव कहलाता है।

6. उत्तर – परमेश्वर अधियज्ञ, यज्ञ का स्वामी कहलाता है |

7.उत्तर – प्रत्येक देहधारी के हृदय में परमात्मा स्वरूप स्थित है |

2. मृत्यु के समय भगवद-प्राप्ति (५ -१४)

 मृत्यु के समय श्रीकृष्ण को किस प्रकार प्राप्त करते है | इसका उत्तर भगवन इस अनुभाग मे देते है | भगवान कहते है, “जीवन के अन्त में जो केवल मेरा स्मरण करते हुए शरीर का त्याग करता है, वह तुरन्त मेरे स्वभाव को प्राप्त करता है।“  श्लोक ८.६ मे इस संदर्भ मे बताया है –

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।

तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भ‍ावभावित: ॥ ६ ||

“हे कुन्तीपुत्र ! शरीर त्यागते समय मनुष्य जिस-जिस भाव का स्मरण करता है, वह उस उस भाव को निश्चित रूप से प्राप्त होता है।“

जो व्यक्ति अन्त समय कृष्ण का चिन्तन करते हुए शरीर त्याग करता है, उसे परमेश्वर का दिव्य स्वभाव प्राप्त होता है। महापुरुष होते हुए भी महाराज भरत ने मृत्यु के समय एक हिरन का चिन्तन किया | अत: अगले जीवन में हिरन के शरीर में उनका देहान्तरण हुआ। यद्यपि हिरन के रूप में उन्हें अपने विगत कर्मों की स्मृति थी, किन्तु उन्हें पशु शरीर धारण करना ही पड़ा। यदि कोई दिव्यरूप से कृष्ण की सेवा में लीन रहता है तो उसका अगला शरीर दिव्य (आध्यात्मिक) ही होगा, भौतिक नहीं। अत: जीवन के अन्त समय अपने स्वभाव को सफलतापूर्वक बदलने के लिए “हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ||” का जप करना सर्वश्रेष्ठ विधि है। है।

श्लोक ८.७ मे इस संदर्भ मे बताया है-

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च ।

मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशय: ॥ ७ ॥

“अतएव: हे अर्जुन! तुम्हें सदैव कृष्ण रूप में मेरा चिन्तन करना चाहिए और साथ ही युद्ध करने के कर्तव्य को भी पूरा करना चाहिए। अपने कर्मों को मुझे समर्पित करके तथा अपने मन एवं बुद्धि को मुझमें स्थिर करके तुम निश्चित रूप से मुझे प्राप्त कर सकोगे।“

इसमें श्रीकृष्ण बताते है की मनुष्य को अपने कर्तव्यों को  करते हुए साथ-साथ हरे कृष्ण का जप करके कृष्ण का चिन्तन कर सकता है। इससे मनुष्य भौतिक कल्मष से मुक्त हो जायेगा और अपने मन तथा बुद्धि को कृष्ण में प्रवृत्त करेगा भगवन का चिंतन निराकार स्वरुप मे न करे अपितु पुरुष के रूप मे किया जाना चाहिए | भगवान् पुरुष हैं—हम राम तथा कृष्ण को पुरुष रूप में सोचते हैं। भगवान सर्वज्ञ, पुरातन, नियन्ता, लघुतम से भी लघुतर, प्रत्येक का पालनकर्ता, समस्त भौतिकबुद्धि से परे, अचिन्त्य तथा नित्य पुरुष है, वे सूर्य की भाँति तेजवान हैं और इस भौतिक प्रकृति से परे, दिव्य रूप हैं।  मृत्यु के समय जो व्यक्ति अपने प्राण को भौहों के मध्य स्थिर कर लेता है और योगशक्ति के द्वारा अविचलित मन से पूर्णभक्ति के साथ परमेश्वर के स्मरण में अपने को लगाता है, वह निश्चित रूप से भगवान् को प्राप्त होता है।

3. शाश्वत अध्यात्मिक जगत तथा अस्थायी जड़जगत (१५ – २२)

इस अनुभाग मे श्रीकृष्ण शाश्वत अध्यात्मिक जगत तथा अस्थायी जडजगत मे अंतर बताते है कि यह भौतिक जगत दुखालायमअशास्वतम् है तथा यह नश्वर जगत् जन्म, जरा तथा मृत्यु के क्लेशों से पूर्ण है, स जगत् में सर्वोच्च लोक से लेकर निम्नतम सारे लोक दुखों के घर हैं, जहाँ जन्म तथा मरण का चक्कर लगा रहता है।  जो सर्वोच्च भौतिक लोकों अर्थात् देवलोकों को प्राप्त होता है, उसका पुनर्जन्म होता रहता है। ब्रह्मलोक, चन्द्रलोक तथा इन्द्रलोक जैसे उच्चतर लोकों से लोग पृथ्वी पर गिरते रहते हैं। मनुष्य ब्रह्मलोक को प्राप्त कर सकता है, किन्तु यदि ब्रह्मलोक में वह कृष्णभावनामृत का अनुशीलन नहीं करता, तो उसे पृथ्वी पर फिर से लौटना पड़ता है।

ब्रह्मा का एक दिन एक हज़ार चतुर्युग से मिलकर बनता है तथा इतनी ही उनकी रात्रि होती है | इसके बाद भी ब्रह्मा की स्थिति स्थायी नहीं है |  ब्रह्मा के दिन के शुभारम्भ में सारे जीव अव्यक्त अवस्था से व्यक्त होते हैं और फिर जब रात्रि आती है तो वे पुन: अव्यक्त में विलीन हो जाते हैं। जब-जब ब्रह्मा का दिन आता है तो सारे जीव प्रकट होते हैं और ब्रह्मा की रात्रि होते ही वे असहायवत् विलीन हो जाते हैं।

जबकि भगवान का शाश्वत धाम कभी नाश नहीं होता |

कृष्ण की पराशक्ति दिव्य और शाश्वत है। यह उस भौतिक प्रकृति के समस्त परिवर्तनों से परे है | यह अप्रकट तथा अविनाशी हैं, जो परम गन्तव्य है, जिसे प्राप्त कर लेने पर कोई वापस नहीं आता, वही परमधाम है। भगवान् कृष्ण के परमधाम को चिन्तामणि धाम कहा गया है, जो ऐसा स्थान है जहाँ सारी इच्छाएँ पूरी होती हैं। भगवान् कृष्ण का परमधाम गोलोक वृन्दावन कहलाता है और वह पारसमणि से निर्मित प्रासादों से युक्त है। वहाँ पर वृक्ष भी हैं, जिन्हें कल्पतरु कहा जाता है, जो इच्छा होने पर किसी भी तरह का खाद्य पदार्थ प्रदान करने वाले हैं। वहाँ गौएँ भी हैं, जिन्हें सुरभि गौएँ कहा जाता है और वे अनन्त दुग्ध देने वाली हैं।

इस धाम में भगवान् की सेवा के लिए लाखों लक्ष्मियाँ हैं। वे आदि भगवान् गोविन्द तथा समस्त कारणों के कारण कहलाते हैं। भगवान् वंशी बजाते रहते हैं (वेणुं क्वणन्तम्)। उनका दिव्य स्वरूप समस्त लोकों में सर्वाधिक आकर्षक है, उनके नेत्र कमलदलों के समान हैं और उनका शरीर मेघों के वर्ण का है। वे इतने रूपवान हैं कि उनका सौन्दर्य हजारों कामदेवों को मात करता है। वे पीत वस्त्र धारण करते हैं, उनके गले में माला रहती है और केशों में मोरपंख लगे रहते हैं। भगवान्, जो सबसे महान हैं, अनन्य भक्ति द्वारा ही प्राप्त किये जा सकते हैं। यद्यपि वे अपने धाम में विराजमान रहते हैं, तो भी वे सर्वव्यापी हैं और उनमें सब कुछ स्थित है।कृष्ण के परमधाम में या असंख्य वैकुण्ठ लोकों में भक्ति के द्वारा ही प्रवेश सम्भव है |

4. योगी का गंतव्य – प्रस्थान समय के अनुसार (२३-२६)

इस अनुभाग मे श्रीकृष्ण बताते है कि योगी, जो विभिन्न कालो मे शरीर त्यागते है, उनकी क्या गति होती है |

 जो परब्रह्म के ज्ञाता हैं, वे अग्निदेव के प्रभाव में, प्रकाश में, दिन के शुभक्षण में, शुक्लपक्ष में या जब सूर्य उत्तरायण में रहता है, उन छह मासों में इस संसार से शरीर त्याग करने पर उस परब्रह्म को प्राप्त करते हैं।

जो योगी धुएँ, रात्रि, कृष्णपक्ष में या सूर्य के दक्षिणायन रहने के छह महीनों में दिवंगत होता है, वह चन्द्रलोक को जाता है, किन्तु वहाँ से पुन: (पृथ्वी पर) चला आता है |

वैदिक मतानुसार इस संसार से प्रयाण करने के दो मार्ग हैं—एक प्रकाश का तथा दूसरा अंधकार का। जब मनुष्य प्रकाश के मार्ग से जाता है तो वह वापस नहीं आता, किन्तु अंधकार के मार्ग से जाने वाला पुन: लौटकर आता है |

5. भक्तियोग मे सफलता की सुनिशचित्ता (२७-२८ )

भक्ति मे यह सुनिश्चित्ता होती है कि वह भगवद्धाम को अवश्य प्राप्त करेगा | भगवद्भक्त को इसकी चिन्ता नहीं होनी चाहिए कि वह स्वेच्छा से मरेगा या दैववशात्। भक्त को कृष्णभावनामृत में दृढ़तापूर्वक स्थित रहकर हरे कृष्ण का जप करना चाहिए। उसे यह जान लेना चाहिए कि इन दोनों मार्गों में से किसी की भी चिन्ता करना कष्टदायक है। कृष्णभावनामृत में तल्लीन होने की सर्वोत्तम विधि यही है कि भगवान् की सेवा में सदैव रत रहा जाय। इससे भगवद्धाम का मार्ग स्वत: सुगम, सुनिश्चित तथा सीधा होगा। इस संदर्भ मे श्लोक  (८.२८ ) मे बताया गया है –

वेदेषु यज्ञेषु तप:सु चैव

दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम् ।

अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा

योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् ॥ २८ ॥

“जो व्यक्ति भक्तिमार्ग स्वीकार करता है, वह वेदाध्ययन, तपस्या, दान, दार्शनिक तथा सकाम कर्म करने से प्राप्त होने वाले फलों से वंचित नहीं होता। वह मात्र भक्ति सम्पन्न करके इन समस्त फलों की प्राप्ति करता है और अन्त में परम नित्यधाम को प्राप्त होता है।“

 कृष्णभावनामृत की विशेषता यह है कि मनुष्य एक ही झटके में भक्ति करने के कारण मनुष्य जीवन के विभिन्न आश्रमों के अनुष्ठानों को पार कर जाता है।

6. निष्कर्ष

भक्ति द्वारा ही हम भगवान को प्राप्त कर सकते है तथा हमें किस प्रकार का शरीर अगले जन्म मे प्राप्त होगा | यह हमारे अंतिम विचार निर्धारित करते है | मृत्यु आखिर क्या है ? मृत्यु एक शाश्वत अपरिवर्तनशील प्रक्रिया है, जिसमे सारे जीवित अंग काम करना बंद कर देते है तथा शरीर सडने लगता है | बहुत सारे लोग मृत्यु से भयभीत रहते है, विचार करते है ताकि यह परेशानी न हो | यदि हम अस्थायी चीजो से लगाव बना रहता है, जो कि हमें कर्मो के फलो से प्राप्त हुआ है, तो हम इस नश्वर देह को स्वीकार करते है | परन्तु यदि हम श्रीकृष्ण के प्रति आकर्षित होते है तो शाश्वत अध्यात्मिक शरीर को प्राप्त करते है |

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