भगवद्गीता से नेतृत्व के 10 प्रमुख सूत्र

भगवद्गीता से नेतृत्व के 10 प्रमुख सूत्र – भगवद्गीता नेतृत्व का एक अदृष्ट उदारहण है क्योंकि भगवद्गीता जो कि स्वयं कृष्ण द्वारा बोली गयी कृष्ण ने अपना बचपन एक ग्वाल बाल के रूप मे बिताया फिर मथुरा जाकर कंस जैसे असुर का वध किया तथा अपने माता पिता और राजा उग्रसेन को कंस के कारागार से मुक्त कराया | तत पश्चात राजा का पद स्वयं ग्रहण न करके उस पर राजा उग्रसेन को बनाया | इससे उन्होंने उदाहरण प्रस्तुत किया पद से अधिक महत्पूर्ण योगदान होता है | नेता कभी भी पद को महत्त्व नहीं देते वह सदैव योगदान को महत्त्व देते है | इसके बाद जब भी जिम्मेदारी उठाने की बारी आती मथुरा मे या द्वारका मे कोई भी परेशानी आती तो श्रीकृष्ण सबसे आगे होते थे जिम्मेदारी उठाने मे | इस प्रकार उन्होंने नेतृत्व का एक अद्भुत उदारहण प्रस्तुत किया |

भगवद्गीता से नेतृत्व के 10 प्रमुख सूत्र

भगवद्गीता जिनने सुने गयी वो एक कुशल धनुधर थे | वह विजेताओ के भी विजेता थे | वह अत्यधिक गुणी तथा प्रमुख योद्धा थे | कुशल नेतृत्व सदैव दूसरो को प्रोत्साहित करते है  तथा वाकी जो उन्हें अनुसरण करते है वह इस प्रकार योगदान देते है जिससे वह उद्देश पूर्ति मे सफल हो सके | भगवद्गीता हमें हमेशा एक सटीक निर्णय लेने मे मदद करती है | यह अपनी शिक्षा के माध्यम से ज्ञान प्रदान करती है जिससे व्यक्ति अपने सुखी भविष्य के लिए उचित निर्णय ले सकते है |

गीता ज्ञान के कुछ महत्वपूर्ण सूत्र – भगवद्गीता से नेतृत्व के 10 प्रमुख सूत्र

इस अध्याय में, भगवान कृष्ण द्वारा कही गई भगवद्गीता से नेतृत्व के 10 प्रमुख सूत्र इस प्रकार हैं –

1. नेता एक शिक्षार्थी है

2. सफलता को पुन परिभाषित करे

3. चिन्ताशील बने परन्तु कभी परेशान न हो

4. सदैव अपने मन को नियंत्रित रखे

5. हमेशा दूसरो के लिए उदारहण प्रस्तुत करे

6. वाक्य सदैव वाक्य को आकार देते है

7. समस्या को देखने का नज़रिया

8. कर्म ही पूजा है

9. आंतरिक शक्ति

10. कभी हतोत्साहित न हो

1. नेता एक शिक्षार्थी है

भगवद्गीता की शुरुआत मे अर्जुन  यह देखकर बहुत परेशान हो जाते है की उन्हें युद्ध अपने वरिष्ट परिजन और गुरुजन जो कि उन्हें बहुत प्रिय है उनके  विरुद्ध लड़ना है, बहुत परेशान हो जाते है | इस समय अर्जुन विषाद मे आ जाते है तथा श्रीकृष्ण को अपना गुरु स्वीकार करते है और भगवान से भगवद्गीता 2.7 मे कहते है :

                       कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः

                       पृच्छामि त्वां धर्म सम्मूढचेताः |

                       यच्छ्रेयः स्यान्निश्र्चितं ब्रूहि तन्मे

                      शिष्यस्तेSहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ||

“अब मैं अपनी कृपण-दुर्बलता के कारण अपना कर्तव्य भूल गया हूँ और सारा धैर्य खो चूका हूँ | ऐसी अवस्था में मैं आपसे पूछ रहा हूँ कि जो मेरे लिए श्रेयस्कर हो उसे निश्चित रूप से बताएँ | अब मैं आपका शिष्य हूँ और शरणागत हूँ | कृप्या मुझे उपदेश दें |”

नेता प्रत्येक परिस्थिति मे सीखते रहते है, चाहे अच्छा  हो या बुरा हो वह प्रत्येक पारिस्थिति से एक शिक्षा ग्रहण करते है तथा दूसरो के लिए एक उदारहण प्रस्तुत करते है | उनके लिए पूरा विश्व एक विधालय के समान है |

2. सफलता को पुन परिभाषित करे

यह हमने देखा है भौतिक जगत मे सफल व्यक्ति उसी को माना जाता है जिसके पास बहुत सारा धन है या उच्च पद है | लेकिन भगवद्गीता मे बताया गया है सफल व्यक्ति वही है जो सुख – दुःख मे अविचल रहता है | सफल होना यह नहीं है कि अपने कोई परीक्षा पास कर ली या बहुत सारा धन एकत्र कर लिया, सफल व्यक्ति वह है जिसने अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण करना सीख लिया, क्योंकि यह पद और पैसा एक शरीर से सम्बंधित है तथा एक व्यक्ति को जो शरीर मिला है उसी के अनुरूप उसे कार्य करना पड़ता है | परन्तु जो भी फल उसे प्राप्त होता है वह पूर्व जन्म के कर्म और भगवान कि इच्छा के अनुरूप प्राप्त होता है | अत: सफल व्यक्ति केवल प्रयास मे विश्वास रखते है उसके फल के प्रति आसक्त नहीं होते |

3. चिन्ताशील बने परन्तु कभी परेशान न हो

नेता सदैव अपने अधीनस्थ द्वारा लक्ष्य  प्राप्ति के लिए चिंतित रहते है परन्तु वह कभी आसक्त नहीं होते | भगवद्गीता श्लोक 2.47 मे भगवान कहते है :

                   कर्मण्यवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन |

                 मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोSस्त्वकर्मणि ||

“तुम्हें अपने कर्म (कर्तव्य) करने का अधिकार है, किन्तु कर्म के फलों के तुम अधिकारी नहीं हो | तुम न तो कभी अपने आपको अपने कर्मों के फलों का कारण मानो, न ही कर्म न करने में कभी आसक्त होओ |”

नेता सदैव  कार्य करने मे विश्वास रखते है | तथा न तो वह कार्य से आसक्त होते है न ही विरक्त | भगवद्गीता हमें यही सीखती है व्यक्ति को न तो आसक्त होना है न विरक्त होना है | व्यक्ति जब कर्म करता है तो उसे समभाव मे स्थित होकर कार्य करना है | व्यक्ति को इस बारे मे चिंतित नहीं होना चाहिए कि उसकी जय होगी या पराजय |

4. सदैव अपने मन को नियंत्रित रखे

एक नेता को सदैव विभिन्न व्यक्तियों से मिलाना होता है तथा सभी का स्वाभाव अलग – अलग होता है | इसलिए जो व्यक्ति  नेतृत्व कर रहा है उसे सबसे पहले अपने मन को नियंत्रित करना सिखना चाहिए | क्योंकि यदि उसका स्वयं का मन नियंत्रित नहीं है तो वह  विभिन्न स्वाभाव वाले व्यक्तियों के साथ काम नहीं कर सकता है | मन को नियंत्रित करने के लिए कृष्ण भगवद्गीता 6.26 मे कहते है :

          यतो यतो निश्र्चलति मनश्र्चञ्चलमस्थिरम् |

          ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत् ||

“मन अपनी चंचलता तथा अस्थिरता के कारण जहाँ कहीं भी विचरण करता हो,मनुष्य को चाहिए कि उसे वहाँ से खींचे और अपने वश में लाए |”

5. हमेशा दूसरो के लिए उदारहण प्रस्तुत करे

कृष्ण भगवद्गीता मे कहते है कि जब वह मनुष्य रूप मे आते है तो उन्हें कोई भी कार्य करने कि आवशकता नहीं है फिर भी वह सभी कर्तव्य को पूरा करते है क्योंकि वह जानते है वह जो भी कार्य करेगे मनुष्य उसका अनुसरण करेगे, तो एक उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए वह अपने नियत कर्मो को करते है | भगवद्गीता 3.21 मे कृष्ण कहते है :

                            यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः |

                            स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ||    

“महापुरुष जो जो आचरण करता है, सामान्य व्यक्ति उसी का अनुसरण करते हैं | वह अपने अनुसरणीय कार्यों से जो आदर्श प्रस्तुत करता है, सम्पूर्ण विश्र्व उसका अनुसरण करता है |”

सामान्य लोगों को सदैव एक ऐसे नेता की आवश्यकता होती है, जो व्यावहारिक आचरण द्वारा जनता को शिक्षा दे सके | यदि नेता स्वयं धूम्रपान करता है तो वह जनता को धूम्रपान बंद करने की शिक्षा नहीं दे सकता | जो व्यक्ति अपनी उन्नति चाहता है उसे महान शिक्षकों द्वारा अभ्यास किये जाने वाले आदर्श नियमों का पालन करना चाहिए | श्रीमद्भागवत भी इसकी पुष्टि करता है कि मनुष्य को महान भक्तों के पदचिन्हों का अनुसरण करना चाहिए और आध्यात्मिक बोध के पथ में प्रगति का यही साधन है | चाहे राजा हो या राज्य का प्रशासनाधिकारी, चाहे पिता हो या शिक्षक-ये सब अबोध जनता के स्वाभाविक नेता माने जाते हैं | इन सबका अपने आश्रितों के प्रति महान उत्तरदायित्व रहता है, अतः इन्हें नैतिक तथा आध्यात्मिक संहिता सम्बन्धी आदर्श ग्रंथों से सुपरिचित होना चाहिए |

6. वाक्य सदैव वाक्य को आकार देते है

नेता सदैव अपने वाक्यों का इस्तेमाल सोच समझकर करते है शब्द किसी भी निर्णय तक पहुचने मे एक महत्पूर्ण भूमिका निभाते है | इशलिये एक नेता अपने शब्दों का अनुकूल उपयोग करता है जिससे वह अपने अधीनस्थ से सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन प्राप्त कर सके | जैसे अर्जुन श्रीकृष्ण के लिए मधुसुदन, केशव गोविन्द  कहकर सम्बोधित करता है इसका मतलब गोविन्द कहकर सम्बोधित किया क्योंकि वे गौवों तथा इन्द्रियों कि समस्त प्रसन्नता के विषय हैं | इस विशिष्ट शब्द का प्रयोग करके अर्जुन संकेत करता है कि कृष्ण यह समझें कि अर्जुन की इन्द्रियाँ कैसे तृप्त होंगी |अर्जुन द्वारा ‘कृष्ण’ को ‘माधव’ अथवा ‘लक्ष्मीपति’ के रूप में सम्बोधित करना भी सार्थक है |

वह लक्ष्मीपति कृष्ण को यह बताना चाह रहा था कि वे उसे ऐसा काम करने के लिए प्रेरित न करें, जिससे अनिष्ट हो | किन्तु कृष्ण कभी भी किसी का अनिष्ट नहीं चाहते, भक्तों का तो कदापि नहीं |मधुसुदन जिन्होंने मधु नामक राक्षस का वध किया वह अर्जुन के अज्ञान का भी नाश करे | तथा कृष्णा ने अर्जुन के लिए काफी कढोर शब्दों का उपयोग किया जैसे यह कल्मष कैसे आया, यह नपुंसकता तुम्हे शोभा नहीं देती | परमतप:, कौन्तेय भारत इत्यादि | ताकि अर्जुन समझे जो वह कर रहे है वह गलत है यह कार्य उनको शोभा नहीं देता |

7. समस्या को देखने का नज़रिया

जीवन मे जब भी समस्या आती है तो व्यक्ति उस समस्या को किस प्रकार देखता है यह महत्वपूर्ण है | जीवन समस्याओ पर निर्भर है तथा हम उसका आकार निर्धारित करते है | पांडवो के जीवन मे जब भी कोई समस्या आती थि वह सदैव कृष्ण को याद करते थे, कुंती महारानी भगवान से यही प्राथना करती थी कि हमारे जीवन मे सदा विपति आती रहे ताकि हम हमेशा आपको याद करते रहे | वह कभी भी परेशान नहीं होते थे कृष्ण उनके परम मित्र तथा संबंधि थे और वह हमेशा उनकी सहायता के लिए आते थे |

8. कर्म ही पूजा है

भगवद्गीता सदैव कर्म को पूजा के रूप मे करने के लिए प्रेरित करती है | कृष्ण भगवद्गीता मे कहते है प्रत्येक व्यक्ति को अपना शरीर को बनाये रखने के लिए कर्म करना पड़ता है, इसलिए उन्होंने स्वयं वर्णआश्रम व्यवस्था का निर्माण किया है ताकि व्यक्ति अपने वर्ण और आश्रम के अनुरूप कार्य करे | भगवान अर्जुन को युद्ध छोड़कर संन्यास लेने कि सलाह नहीं देते क्योंकि वह एक क्षत्रिय है, और एक क्षत्रिय का धर्म है युद्ध करना | इसलिए भगवान उन्हें युद्ध करने कि सलाह देते है | कृष्ण  हग्वाद्गिता 3.9 मे कहते है :

             यज्ञार्थात्कर्मणोSन्यत्र लोकोSयं कर्मबन्धनः |

                तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर ||

“श्रीविष्णु के लिए यज्ञ रूप में कर्म करना चाहिए, अन्यथा कर्म के द्वारा इस भौतिक जगत् में बन्धन उत्पन्न होता है | अतः हे कुन्तीपुत्र! उनकी प्रसन्नता के लिए अपने नियत कर्म करो | इस तरह तुम बन्धन से सदा मुक्त रहोगे |”

9. आंतरिक शक्ति

जब भी जीवन मे कभी विपति आती है तो उससे हमें काफी कुछ सिखने को मिलता है | जैसे पांडवो पर जब विपति आई उन्हें अज्ञातवास मे जाना पड़ा तो उन्होंने ऋषि – मुनियों से काफी कुछ सीखा | कठिन समय ने उन्हें विन्रम और सहिष्णु बनाया, उन्होंने अपनी आतंरिक शक्ति को बढाया |भगवद्गीता से यह सीखने को मिलता है जब भी विपति आती है तो  हमें कुछ नया सीखा कर जाती है | एक व्यक्ति सुख मे केवल जीवन का भोग कर सकता है परन्तु विपति मे काफी कुछ नया सीख सकता है |

10. कभी हतोत्साहित न हो

नेता जीवन कि किसी भी परिस्थति मे हतोत्साहित नही होते न ही अपने अधीनस्थ को होने देते है | जब पांडव अज्ञातवास से वापस आये तो उनके पास कुछ नहीं था दुर्योधन ने उनका राज्य वापस देने से मना कर दिया था, न उनके पास सेना थी न ही राज्य फिर भी कृष्ण ने उन्हें हतोत्साहित न होने दिया | उन्होंने अर्जुन तथा युधिष्ठिर को पूरा सहयोग दिया युद्ध लड़ने के लिए यधपि दुर्योधन की सेना बड़ी थी और सारे महारथी दुर्योधन के साथ थे, अर्जुन युद्ध से पहले ही अपने गुरुजनों और परिजनों के विरुद्ध युद्ध नहीं लड़ना चाहते थे|  उन्होंने अर्जुन का उचित मार्गदर्शन करके उन्हें प्रोत्सहित किया | संजय भगवद्गीता 18.78 मे कहते है :

                          यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।

                          तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।

“जहाँ योगेश्र्वर कृष्ण है और जहाँ परम धनुर्धर अर्जुन हैं, वहीँ ऐश्र्वर्य, विजय, अलौकिक शक्ति तथा नीति भी निश्चित रूप से रहती है | ऐसा मेरा मत है |”

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