अध्याय ५ : कर्म – संन्यास योग

अध्याय ५ : कर्म – संन्यास योग – भगवद्गीता के पंचम अध्याय मे भगवान बताते है कि भक्तिपूर्वक किया गया कर्म, शुष्क चिंतन से बेहतर है | तृतीय अध्याय मे बताया गया कि जो व्यक्ति ज्ञान मे स्थित है उसके लिए कोई कर्म शेष नहीं रहता और चतुर्थ अध्याय मे बताया गया है कि सारे यज्ञों का सार ज्ञान प्राप्त करना है तथा भगवान कृष्णअर्जुन को निर्देश देते है,  “खड़े हो जाओ और ज्ञान में स्थित होकर युद्ध करो” | श्रीकृष्ण इस प्रकार भक्ति मे कर्म तथा ज्ञान से अकर्म करने को प्रोत्साहित कर रहे है | इससे अर्जुन दुविधा मे आ जाते है तथा पंचम अध्याय की शुरुआत इसी प्रश्न से होती है कि क्या बेहतर है,  “कर्म त्याग करना या भक्तिपूर्वक कर्म करना ?” | इसके समाधान में श्रीकृष्ण बताते है कि सभी कार्यो को श्री कृष्ण को समर्पित कर देना ही वास्तविक सन्यास है |

  1. कृष्णभावनामृत में कर्म  (१-१0 )
  2. तीन प्रमुखकर्ता ( ११- १६)
    1. स्वतंत्र इच्छा
  3. पूर्णता की प्रक्रिया ( १७-२४)
  4. शाश्वत तथा स्थायी शांति की ओर ( २५- २९)
    1. विश्व शांति सूत्र
अध्याय ५ : कर्म – संन्यास योग

1. कृष्णभावनामृत मे कर्म  (१-१० )

भगवान अर्जुन के प्रश्नों का उत्तर देते हुए कहते है कि मुक्ति के लिए कर्म का परित्याग करना तथा भक्तिमय कर्म दोनों उत्तम है परन्तु इनमें से कर्म के परित्याग से भक्तियुक्त कर्म श्रेष्ठ है | सकाम कर्म ही भवबंधन का कारण है | जब तक हम शारीरिक सुखों को बढ़ाने के उद्देश्य से कर्म करेगे , तब तक हमारा विभिन्न शरीर मे देहांतरण होता रहेगा और हम इसी भवबंधन मे पड़े रहेगे | केवल ज्ञान (हम शरीर नहीं, आत्मा है ) मुक्ति के लिए पर्याप्त नहीं | अत: कृष्णभावनाभावित् कर्म सन्यास से सदैव श्रेष्ठ है तथा कृष्णभावनामृत से रहित सन्यास अपूर्ण |

                              ज्ञेय: स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्‍क्षति ।

                              निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥ ३ ॥(५.३ )

“जो पुरुष न तो कर्मफलों से घृणा करता है और न कर्मफल की इच्छा करता है, वह नित्य संन्यासी जाना जाता है। हे महाबाहु अर्जुन! ऐसा मनुष्य समस्त द्वन्द्वों से रहित होकर भवबन्धन को पार कर पूर्णतया मुक्त हो जाता है।“

पूर्णतया कृष्णभावनाभावित पुरुष नित्य संन्यासी है क्योंकि वह अपने कर्मफल से न तो घृणा करता है, न ही उसकी आकांक्षा करता है।

कृष्णभावनाभावित् कर्म के विषय मे भगवान श्रीकृष्ण ५.१० मे कहते है –

                            ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति य: ।

                             लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥ १० ॥

“जो व्यक्ति कर्मफलों को परमेश्वर को समर्पित करके आसक्तिरहित होकर अपना कर्म करता है, वह पाप कर्मों से उसी प्रकार अप्रभावित रहता है, जिस प्रकार कमलपत्र जल से अस्पृश्य रहता है।“

सारी वस्तुएँ परब्रह्म या कृष्ण से सम्बन्धित हैं, अतएव वे केवल उन्हीं की हैं। जो यह भलीभाँति जानता है कि प्रत्येक वस्तु कृष्ण की है और वे ही प्रत्येक वस्तु के स्वामी हैं | अत: प्रत्येक वस्तु भगवान् की सेवा में ही नियोजित है, उसे स्वभावत: शुभ-अशुभ कर्मफलों से कोई प्रयोजन नहीं रहता। यहाँ तक की विशेष प्रकार का कर्म सम्पन्न करने के लिए भगवान् द्वारा प्रदत्त मनुष्य का शरीर भी कृष्णभावनामृत में संलग्न किया जा सकता है। कृष्णभावनाभावित व्यक्ति यह समझ कर कर्म करता है कि यह देह कृष्ण की सम्पत्ति है, अत: इसे कृष्ण की सेवा में प्रवृत्त होना चाहिए। तब यह पापकर्मों के कल्मष से वैसे ही परे रहता है जैसे कि कमलपत्र जल में रहकर भी भीगता नहीं।

2. तीन प्रमुखकर्ता ( ११- १६)

केवल ज्ञान द्वारा ही मनुष्य तीन प्रमुख कर्ता को समझ सकता है | जिस प्रकार सूर्य आने से प्रत्येक वस्तु स्पष्ट हो जाती है उसी प्रकार ज्ञान होने से तीन प्रमुख कर्ता जीव, प्रकृति, परमात्मा स्पष्ट दिखाई देने लगते है अज्ञान मे मनुष्य इन्हें देख नहीं पता | ५. १४ मे इस संदर्भ मे बताया है

                                न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु: ।

                                 न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥

“शरीर रूपी नगर का स्वामी देहधारी जीवात्मा न तो कर्म का सृजन करता है, न लोगों को कर्म करने के लिए प्रेरित करता है, न ही कर्मफल की रचना करता है। यह सब तो प्रकृति के गुणों द्वारा ही किया जाता है।“

स्वतंत्र इच्छा –

संयोगवश परा प्रकृति या जीव अनादिकाल से प्रकृति (अपरा) के सम्पर्क में रहा है। जिस नाशवान शरीर या भौतिक आवास को वह प्राप्त करता है वह अनेक कर्मों और उनके फलों का कारण है। ऐसे बद्ध वातावरण में रहते हुए मनुष्य अपने आपको (अज्ञान वश) शरीर मानकर शरीर के कर्मफलों का भोग करता है। अनन्त काल से उपार्जित यह अज्ञान ही शारीरिक सुख-दुख का कारण है। ज्योंही जीव शरीर के कार्यों से पृथक् हो जाता है त्योंही वह कर्मबन्धन से भी मुक्त हो जाता है। ५. १५ मे इस संदर्भ मे बताया है :

                         नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभु: ।

                         अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तव: ॥

“परमेश्वर न तो किसी के पापों को ग्रहण करता है, न पुण्यों को। किन्तु सारे देहधारी जीव उस अज्ञान के कारण मोहग्रस्त रहते हैं, जो उनके वास्तविक ज्ञान को आच्छादित किये रहता है।“ 

भगवान विभु है, जो कि षष्ठ ऐश्वर्य से पूर्ण है, सदैव सन्तुष्ट है तथा समस्त पाप पुण्य से मुक्त है | जीव अणु है तथा अपनी सीमित शक्ति के कारण अज्ञान के वशीभूत है, वह इच्छा करता है परन्तु उसकी इच्छा भगवान द्वारा ही पूर्ण कि जाती है | जब कोई कृष्ण के पास जाने की इच्छा तो भगवान उसे विशेष ध्यान रखते है , परन्तु यदि वह सांसारिक सुखों का भोग करना चाहाता है तो वह प्रकृति के अधीन कार्य करता है |

जीव की  सभी प्रकार  कि सांसारिक गतिविधियॅा प्रकृति द्वारा संचालित की जाती है जो कृष्ण के निर्देश पर कार्य करती है | हांलाकि प्रकृति एक कर्ता है परन्तु जीव अपने कर्मो के लिए स्वयं उत्तरदायी होता है | कृष्ण इस प्रक्रिया को तब तक बनाये रखता है जब तक जीव मुक्त नहीं हो जाता है |

3.पूर्णता की प्रक्रिया ( १७-२४)

श्रीकृष्ण बताते है की किस प्रकार पूर्ण ज्ञान मे स्थित व्यक्ति समस्त कल्मष से शुद्ध होकर मुक्ति के पथ पर अग्रसर होता है तथा समस्त जीवो के प्रति समता का भाव विकसित करता है | ५. १८ मे इस संदर्भ मे बताया है :

                                 विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।

                                 श‍ुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन ॥ १८ ॥

“विनम्र साधुपुरुष अपने वास्तविक ज्ञान के कारण एक विद्वान् तथा विनीत ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता तथा चाण्डाल को समान दृष्टि (समभाव) से देखते हैं।“

आत्मा तथा परमात्मा के लक्षण समान हैं क्योंकि दोनों चेतन, शाश्वत तथा आनन्दमय हैं। किन्तु अन्तर इतना ही है कि आत्मा शरीर की सीमा के भीतर सचेतन रहती है जबकि परमात्मा सभी शरीरों में सचेतन है। परमात्मा बिना किसी भेदभाव के सभी शरीरों में विद्यमान है। जिनके मन एकत्व तथा समता में स्थित हैं उन्होंने जन्म तथा मृत्यु के बन्धनों को पहले ही जीत लिया है। मानसिक समता आत्म-साक्षात्कार का लक्षण है। जब तक मनुष्य शरीर को आत्मस्वरूप मानता है, वह बद्धजीव माना जाता है, किन्तु ज्योंही वह आत्म-साक्षात्कार द्वारा समचित्तता की अवस्था को प्राप्त कर लेता है, वह बद्धजीवन से मुक्त हो जाता है। वह न तो प्रिय वस्तु को पाकर हर्षित होता है और न अप्रिय को पाकर विचलित होता है |

मन की यह स्थिरता स्थिरबुद्धि या आत्मबुद्धि कहलाती है।इस ज्ञान के कारण वह परम सत्य अर्थात् ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवान् के ज्ञान को भलीभाँति जान लेता है। इस सांसारिक जीवन मे कभी अच्छा समय आता है कभी बुरा पर, ज्ञान में स्थित व्यक्ति दोनों ही परिस्थितियों मे सामान रहता है | ज्ञानी पुरुष कभी भी इन दुखों का कारण, जो भौतिक संसर्ग से उत्पन्न होते है तथा ये स्थायी नहीं है, कभी इनकी ओर आकृष्ट नहीं होते |

५. २१ मे इस संदर्भ मे बताया है :

                              बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् ।

                                स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्न‍ुते ॥ २१ ॥

“ऐसा मुक्त पुरुष भौतिक इन्द्रियसुख की ओर आकृष्ट नहीं होता, अपितु सदैव समाधि में रहकर अपने अन्तर में आनन्द का अनुभव करता है। इस प्रकार स्वरूपसिद्ध व्यक्ति परब्रह्म में एकाग्र चित्त होने के कारण असीम सुख भोगता है।“

 इसका उदारहण अवन्ती ब्रह्माण, पांडव तथा परीक्षित महाराज है | कोई भी बुद्धिमान मनुष्य यह समझ सकता है कि यदि हम केवल इन्द्रियतृप्ति के लिए कार्य करेगें तो उचित मूल्य चुकाना होगा | अत: पूर्णता के लिए व्यक्ति मे यह योग्यता होनी चाहिए कि वह इन्द्रियों के वेग को सहन कर सके और यह तभी संभव है जब व्यक्ति आत्मा में स्थित है |

4. शाश्वत तथा स्थायी शांति की ओर ( २५- २९)

जो व्यक्ति समस्त द्वन्द से परे है | वह प्रत्येक जीव के कल्याणकारी कार्यो में लगा रहता है | जब व्यक्ति को यह ज्ञान हो जाता है परमभोक्ता, परमनियन्ता तथा परमसखा कृष्ण को भूल जाना मानवता के क्लेशों का कारण है। जो व्यक्ति मानव समाज का भौतिक कल्याण करने में ही व्यस्त रहता है वह वास्तव में किसी की भी सहायता नहीं कर सकता। शरीर तथा मन की क्षणिक खुशी सन्तोषजनक नहीं होती।

जीवन-संघर्ष में कठिनाइयों का वास्तविक कारण मनुष्य द्वारा परमेश्वर से अपने सम्बन्ध की विस्मृति में ढूँढा जा सकता है। छली अपने बच्चों को केवल देखकर बड़ा करती है। कछुआ केवल चिन्तन द्वारा अपने बच्चों को पालता है। कछुआ अपने अण्डे स्थल में देता है और स्वयं जल में रहने के कारण निरन्तर अण्डों का चिन्तन करता रहता है। इसी प्रकार भगवद् भक्त भगवद् धाम से दूर स्थित रहकर भी भगवान् का चिन्तन करके कृष्णभावनामृत द्वारा उनके धाम पहुँच सकता है। उसे भौतिक क्लेशों का अनुभव नहीं होता।

        विश्व शांति सूत्र :  ५. २९ मे इस संदर्भ मे बताया है :

                             भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् ।

                           सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥ २९ 

“मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परम भोक्ता, समस्त लोकों तथा देवताओं का परमेश्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितैषी जानकर मेरे भावनामृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुखों से शान्ति-लाभ करता है।“

इस प्रकार पूर्णता की प्रक्रिया मे यदि कोई इस परमसत्य को आत्मसात् कर लेता है कि कृष्ण ही परमभोक्ता सभी वस्तुओं के स्वामी तथा सभी के हितैषी है , तो वह भगवान की इन्द्रियों को संतुष्ट करने का प्रयास करता है तथा सभी वस्तुओं का देखभाल करने वाला बनकर वह जाता है | यह मेरे अधिकार क्षेत्र में है, परन्तु इन वस्तुओं के स्वामी कृष्ण है तथा वही मेरी पूर्णता की प्रक्रिया को निर्देशित करेगें |

निष्कर्ष

प्रभुपाद जी ने इस अध्याय ५ : कर्म – संन्यास योग का नाम कर्मयोग – कृष्णभावनामृत कर्म दिया क्योंकि हमारा कुछ भी नहीं है | इस शरीर जिससे हम इतने आकर्षित है, वह भी हमारा नहीं है तो हम संन्यास किस चीज से लेगें | वास्तविक संन्यास वही है जिसमे समझ लिया जाये कि कृष्ण प्रत्येक वस्तु के स्वामी है  तथा प्रत्येक वस्तु उनकी सेवा में उपयोग लेनी चाहिए | संन्यास का अंत इस ज्ञान पर होता है कि हम भगवान के नित्य दास है |

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