अध्याय ११ – विराट रूप ( सार ) – अध्याय दस मे श्रीकृष्ण के ऐश्वर्य का वर्णन है तथा अध्याय दस के अंत मे भगवान अर्जुन से कहते है कि मैं अपने एक अंशमात्र से सम्पूर्ण ब्रहमांड मे व्याप्त होकर इसे धारण करता हूँ | यह सुनकर अर्जुन भगवान से प्रार्थना करते है कि वह उन्हें अपना विराट रूप दिखाए | अर्जुन इस बात को स्वीकार करते है कि श्रीकृष्ण एक साधारण मनुष्य नहीं है, अपितु समस्त कारणों के कारण है | किन्तु वह यह जानते है कि दूसरे लोग नहीं मानेंगे। अत: इस अध्याय में वह सबों के लिए कृष्ण की अलौकिकता स्थापित करने के लिए कृष्ण से प्रार्थना करता है कि वे अपना विराट रूप दिखलाएँ।
वस्तुत: जब कोई अर्जुन की ही तरह कृष्ण के विराट रूप का दर्शन करता है, तो वह डर जाता है, किन्तु कृष्ण इतने दयालु हैं कि इस स्वरूप को दिखाने के तुरन्त बाद वे अपना मूलरूप धारण कर लेते हैं। भगवान् कृष्ण अर्जुन को दिव्य दृष्टि प्रदान करते हैं और विश्व-रूप में अपना अद्भुत असीम रूप प्रकट करते हैं। इस प्रकार वे अपनी दिव्यता स्थापित करते हैं। कृष्ण बतलाते हैं कि उनका सर्व आकर्षक मानव-रूप ही ईश्वर का आदि रूप है। मनुष्य शुद्ध भक्ति के द्वारा ही इस रूप का दर्शन कर सकता है।
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१. अर्जन द्वारा विराटरूप दर्शन कि प्रार्थना करना ( १-८)
अर्जुन द्वारा श्रीकृष्ण से दिव्य ज्ञान ग्रहण करने के बाद श्रीकृष्ण की कृपा से अर्जुन के सारे मोह दूर हो जाते है तथा वह श्रीकृष्ण से प्रार्थना करते है, “यद्यपि आपको मैं अपने समक्ष आपके द्वारा वर्णित आपके वास्तविक रूप में देख रहा हूँ, किन्तु मैं यह देखने का इच्छुक हूँ कि आप इस दृश्य जगत में किस प्रकार प्रविष्ट हुए हैं। मैं आपके उसी रूप का दर्शन करना चाहता हूँ।“ अर्जुन चाहता है कि वह भगवान् को उनके विराट रूप में देखे, जिससे वे ब्रह्माण्ड के भीतर से काम करते हैं, यद्यपि वे इससे पृथक् हैं। अर्जुन द्वारा भगवान् के लिए पुरुषोत्तम सम्बोधन भी महत्त्वपूर्ण है। चूँकि वे भगवान् हैं, इसलिए वे स्वयं अर्जुन के भी भीतर उपस्थित हैं, अत: वे अर्जुन की इच्छा को जानते हैं।
किन्तु भगवान् यह भी जानते हैं कि अर्जुन अन्यों को विश्वास दिलाने के लिए ही विराट रूप का दर्शन करना चाहता है। अर्जुन को इसकी पुष्टि के लिए कोई व्यक्तिगत इच्छा न थी। कृष्ण यह भी जानते हैं कि अर्जुन विराट रूप का दर्शन एक आदर्श स्थापित करने के लिए करना चाहता है, क्योंकि भविष्य में ऐसे अनेक धूर्त होंगे जो अपने आपको ईश्वर का अवतार बताएँगे। अत: लोगों को सावधान रहना होगा। जो कोई अपने को कृष्ण कहेगा, उसे अपने दावे की पुष्टि के लिए विराट रूप दिखाने के लिए सन्नद्ध रहना होगा। भगवान का दर्शन भौतिक इन्द्रियों द्वारा संभव नहीं है | अत: वह कृष्ण की कृपा की याचना करते है | भगवान ने अर्जुन को विश्वरुप दिखाया जिसमे सैकड़ों-हजारों प्रकार के दैवी देवता आदित्यों, वसुओं, रुद्रों, अश्विनीकुमारों तथा अन्य देवताओं के विभिन्न रूपों दिखाये |
२. संजय तथा अर्जुन द्वारा विराटरूप का वर्णन करना ( ९-३१ )
इस अनुभाग मे संजय तथा अर्जुन द्वारा विराटरूप का वर्णन करते है, “अर्जुन ने उस विश्वरूप में असंख्य मुख, असंख्य नेत्र तथा असंख्य आश्चर्यमय दृश्य देखे। यह रूप अनेक दैवी आभूषणों से अलंकृत था और अनेक दैवी हथियार उठाये हुए था। यह दैवी मालाएँ तथा वस्त्र धारण किये था और उस पर अनेक दिव्य सुगन्धियाँ लगी थीं। सब कुछ आश्चर्यमय, तेजमय, असीम तथा सर्वत्र व्याप्त था।”
उनका तेज हजारो सूर्य के सामान था | यह रूप सब दिशाओं में फेला हुआ था | इसका कोई आदि, मध्य,अंत नहीं था | अर्जुन ने कृष्ण के शरीर में सारे देवताओं तथा अन्य विविध जीवों को एकत्र देखा तथा कमल पर आसीन ब्रह्मा, शिवजी तथा समस्त ऋषियों एवं दिव्य सर्पों को देखा और अनेकानेक हाथ, पेट, मुँह तथा आँखें देखा, जो सर्वत्र फैले हैं और जिनका अन्त नहीं है।
कृष्ण के चकाचौंध तेज के कारण देख पाना कठिन है, क्योंकि वह प्रज्ज्वलित अग्नि की भाँति अथवा सूर्य के अपार प्रकाश की भाँति चारों ओर फैल रहा है तथा इस तेजोमय रूप को सर्वत्र देखा, जो अनेक मुकुटों, गदाओं तथा चक्रों से विभूषित है।
अर्जुन श्री कृष्ण को इस ब्रह्माण्ड के परम आधार (आश्रय), अव्यय तथा पुराण पुरुष और सनातन धर्म के पालक भगवान् स्वीकार करते हैं।
इस विश्वरूप मे असंख्य भुजाएँ हैं और सूर्य तथा चन्द्रमा आपकी आँखें हैं। कृष्ण के मुख से प्रज्ज्वलित अग्नि निकल रही है और अर्जुन ने भगवान के तेज से इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को जलते हुए देखा |
कृष्ण के इस अनेक मुख, नेत्र, बाहु, जंघा, पाँव, पेट तथा भयानक दाँतों वाले विराट रूप को देखकर देवतागण सहित सभी लोक अत्यन्त विचलित हैं और अर्जुन भी इस रूप को देखकर विचलित हो गए |
३. कर्ता केवल श्रीकृष्ण है, हमें उनकी इच्छा का निमित्रमात्र बनना है ( ३२ – ३४ )
अर्जुन कृष्ण के विराटरूप को देखकर भयभीत तथा मोहित हो गए और वह तय नहीं कर पा रहे थे कि कृष्ण कौन है? अत: वह इस अनुभाग मे श्रीकृष्ण बताते है कि “वह समस्त जगतों को विनष्ट करने वाला काल मैं हूँ और मैं यहाँ समस्त लोगों का विनाश करने के लिए आया हूँ। तुम्हारे (पाण्डवों के) सिवा दोनों पक्षों के सारे योद्धा मारे जाएँगे।” इस प्रकार वह अर्जुन की इस शंका का समाधान करते है, जिसमे वह लडऩे के पक्ष में न था तथा वह युद्ध न करना श्रेयस्कर समझता था । किन्तु भगवान् का उत्तर है कि यदि वह नहीं लड़ता, तो भी सारे लोग उनके ग्रास बनते, क्योंकि यही उनकी इच्छा है।
यदि अर्जुन नहीं लड़ता, तो वे सब अन्य विधि से मरते। मृत्यु रोकी नहीं जा सकती, चाहे वह लड़े या नहीं। वस्तुत: वे पहले से मृत हैं। काल विनाश है और परमेश्वर की इच्छानुसार सारे संसार को विनष्ट होना है |
श्लोक ११.३३ मे कृष्ण बताते है ;
तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व
जित्वा शत्रून्भुंक्ष्व राज्यं समृद्धम् ।
मयैवैते निहता: पूर्वमेव
निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन् ॥ ३३ ॥
“अत: उठो! लडऩे के लिए तैयार हो जाओ और यश अर्जित करो। अपने शत्रुओं को जीतकर सम्पन्न राज्य का भोग करो। ये सब मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं और हे सव्यसाची! तुम तो युद्ध में केवल निमित्तमात्र हो सकते हो।”
सव्यसाची का अर्थ है वह जो युद्धभूमि में अत्यन्त कौशल के साथ तीर छोड़ सके। इस प्रकार अर्जुन को एक पटु योद्धा के रूप में सम्बोधित किया गया है, जो अपने शत्रुओं को तीर से मारकर मौत के घाट उतार सकता है। निमित्तमात्रम्—“केवल कारण मात्र” यह शब्द भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यह विराट जगत् बद्धजीवों के लिए भगवान् के धाम वापस जाने के लिए सुअवसर (सुयोग) है। जब तक उनकी प्रवृत्ति प्रकृति के ऊपर प्रभुत्व स्थापित करने की रहती है, तब तक वे बद्ध रहते हैं। किन्तु जो कोई भी परमेश्वर की इस योजना (इच्छा) को समझ लेता है और कृष्णभावनामृत का अनुशीलन करता है, वह परम बुद्धिमान है। प्रत्येक योजना भगवान् द्वारा बनती है, किन्तु वे अपने भक्तों को श्रेय देते हैं | भगवान् की योजनाएँ गुरु की कृपा से समझी जाती हैं और भक्तों की योजनाएँ उनकी ही योजनाएँ हैं।
४. अर्जुन द्वारा श्रीकृष्ण से प्रार्थना ( ३५-४६ )
अर्जुन विराटरूप देखकर हर्षित होते है तथा भगवान से प्रार्थना करते है | वह अपनी प्रार्थना मे उन्ही बातों को दोहराते है जो श्रीकृष्ण पहले ही बता चुके है | वह कृष्ण से अनजाने मे उन्हें सखा, मित्र, कृष्ण, यादव आदि जो भी कहा, उसके लिए क्षमा मांगते हैं | अर्जुन कहते है, “आपके नाम के श्रवण से संसार हर्षित होता है और सभी लोग आपके प्रति अनुरक्त होते हैं। आप ब्रह्मा से भी बढक़र हैं, आप आदि स्रष्टा हैं। आप परम स्रोत, अक्षर, कारणों के कारण तथा इस भौतिक जगत् से परे हैं। आप आदि देव, सनातन पुरुष तथा इस दृश्यजगत के परम आश्रय हैं। आप सब कुछ जानने वाले हैं और आप ही वह सब कुछ हैं, जो जानने योग्य है।
आप भौतिक गुणों से परे परम आश्रय हैं। यह सम्पूर्ण दृश्यजगत आपसे व्याप्त है। आप वायु हैं तथा परम नियन्ता भी हैं। आप अग्नि हैं, जल हैं तथा चन्द्रमा हैं। आप आदि जीव ब्रह्मा हैं और आप प्रपितामह हैं।“
वह कृष्ण से ११.४३ मे कहते है :
पितासि लोकस्य चराचरस्य
त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान् ।
न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिक: कुतोऽन्यो
लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ॥ ४३ ॥
“आप इस चर तथा अचर सम्पूर्ण दृश्यजगत के जनक हैं। आप परम पूज्य महान आध्यात्मिक गुरु हैं। न तो कोई आपके तुल्य है, न ही कोई आपके समान हो सकता है। हे अतुल शक्ति वाले प्रभु ! भला तीनों लोकों में आपसे बढक़र कोई कैसे हो सकता है?”
अर्जुन कहते है, “आप प्रत्येक जीव द्वारा पूजनीय भगवान् हैं। अत: मैं गीरकर सादर प्रणाम करता हूँ और आपकी कृपा की याचना करता हूँ। जिस प्रकार पिता अपने पुत्र की ढिठाई सहन करता है, या मित्र अपने मित्र की घृष्टता सह लेता है, या प्रिय अपनी प्रिया का अपराध सहन कर लेता है, उसी प्रकार आप कृपा करके मेरी त्रुटियों को सहन कर लें।“
अर्जुन भगवान के इस रूप को देखकर पुलकित तथा भयभीत हो गए तथा श्रीकृष्ण से प्रार्थना करते है कि पुन: पुरुषोत्तम भागवत रूप दिखाए तथा भगवान से उनका चतुर्भुज शंख,चक्र, गदा, पदम् धारण किये हुए देखने की प्रार्थना करते है|
५. श्रीकृष्ण का अत्यंत दुर्लभ दिभुज रूप ( ४७-५५)
भगवान का पुरुषोत्तम रूप बहुत ही दुर्लभ है तथा केवल भक्त ही उसका दर्शन कर सकते है तथा भक्ति द्वारा ही उन्हें जाना जा सकता है | भक्त कभी भी विराटरूप देखने मे इच्छुक नहीं होते है, उन्हें सदैव दिभुज रूप जिसमे कृष्ण बांसुरी पकडे हुए है अत्यंत प्रिय है | भगवान का विराटरूप जो श्रीकृष्ण कि इच्छा द्वारा अर्जुन को दिखाई दिया | इसे पहले किसी ने नहीं देखा था | श्रीकृष्ण भक्ति का महात्मय बताते है कि विराटरूप को ना तो वेदाध्ययन के द्वारा, न यज्ञ, दान, पुण्य या कठिन तपस्या के द्वारा इस रूप में, इस संसार में देखा जा सकता है | जिन्हें दिव्य दृष्टि प्राप्त है, वे भी अर्जुन की ही तरह विश्वरूप देख सकते हैं। कृष्ण का शुद्धभक्त बने बिना कोई दिव्य नहीं बन सकता।
किन्तु जो भक्त सचमुच दिव्य प्रकृति के हैं और जिन्हें दिव्य दृष्टि प्राप्त है, वे भगवान् के विश्वरूप का दर्शन करने के लिए उत्सुक नहीं रहते। कोई तपस्या, वेदाध्ययन तथा दार्शनिक चिंतन आदि विभिन्न क्रियाओं के साथ थोड़ा सा भक्ति-तत्त्व मिलाकर कृष्ण के विश्वरूप का दर्शन संभवत: कर सकता है, लेकिन ‘भक्ति-तत्त्व” के बिना यह संभव नहीं है, कृष्ण का द्विभुज रूप और अधिक गुह्य है। कृष्ण पहले अपनी माता देवकी तथा पिता वसुदेव के समक्ष चतुर्भुज रूप में प्रकट हुए थे और तब उन्होंने अपना द्विभुज रूप धारण किया था। जो लोग नास्तिक हैं, या भक्तिविहीन हैं, उनके लिए इस रहस्य को समझ पाना अत्यन्त कठिन है।
इस संदर्भ मे श्रीकृष्ण श्लोक ११.५४ मे बताते है –
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन ।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ॥ ५४ ॥
“हे अर्जुन! केवल अनन्य भक्ति द्वारा मुझे उस रूप में समझा जा सकता है, जिस रूप में मैं तुम्हारे समक्ष खड़ा हूँ और इसी प्रकार मेरा साक्षात् दर्शन भी किया जा सकता है। केवल इसी विधि से तुम मेरे ज्ञान के रहस्य को पा सकते हो।“
जो कोई चिन्मय व्योम के कृष्णलोक में परम पुरुष को प्राप्त करके भगवान् कृष्ण से घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है, उसे स्वयं भगवान् द्वारा बताये गये इस मन्त्र को ग्रहण करना होगा। ऐसा कोई कार्य न करें, जो कृष्ण से सम्बन्धित न हो। यह कृष्णकर्म कहलाता है। कोई भले ही कितने कर्म क्यों न करे, किन्तु उसे उनके फल के प्रति आसक्ति नहीं होनी चाहिए। यह फल तो कृष्ण को ही अर्पित किया जाना चाहिए।
६. निष्कर्ष
अर्जुन श्री कृष्ण के विराटरूप को देखने के इच्छुक इसलिए थे क्योंकि वह यह प्रमाणित करना चाहते थे श्रीकृष्ण स्वयं भगवान है और यदि भविष्य मे कोई स्वयं को भगवान घोषित करता है तो हम उनसे कह सकते है कि वह अपना विराटरूप दिखाए |
विराटरूप इतना भयानक था कि असुर इसे देख डर गए तथा इधर-उधर भागने लगे | उनके बड़े- बड़े दांतों के अन्दर सारे योद्धा समा गए | इससे पता चलता है वह स्वयं काल है और हमारा कार्य उनकी इच्छा का निमित्रमात्र बनाना है तथा भगवान की इच्छा उनकी भक्तों की इच्छा से जान सकते है |
भगवान का श्यामसुंदर स्वरुप अत्यंत दुर्लभ है तथा भक्ति द्वारा ही जाना जा सकता है | भक्त कभी भी विराटरूप मे आनंद नहीं लेते क्योंकि इसमें प्रेमानुभूति का आदान- प्रदान नहीं हो सकता है | भक्त केवल दिभुज रूप मे आकर्षित होते है |