भगवद्गीता के शांति प्रदान करने वाले १० प्रमुख श्लोक – भगवद्गीता समस्त वेदों का सार है तथा यह वेदों का प्रमुख उपनिषद है | यह स्वयं भगवान के मुख से अवतरित हुई है | जिस प्रकार गंगा भगवान के चरणकमलो से निकलती है तथा इसमें स्नान करने वाले व्यक्ति के समस्त पापों का उद्धार कर देती है, उसी प्रकार गीता भगवान के मुख से अवतरित हुई है तथा वह व्यक्ति को भवबंधन से मुक्ति दिला सकती है | भगवद्गीता श्रीकृष्ण ने उस समय कही जब अर्जुन बहुत अधिक दुविधा मे थे तथा असमंजस मे थे | अर्जुन कृष्ण के शरणागत होते है तथा उनसे प्रश्न करते है इस अवस्था मे उन्हें क्या करना चाहिए ? भगवद गीता मे ७०० श्लोक है यहाँ हम भगवद्गीता के शांति प्रदान करने वाले १० प्रमुख श्लोक पर चर्चा करगे जो मनुष्य को विपरीत परिस्थिति मे शांति प्रदान करते है |
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भगवद्गीता के शांति प्रदान करने वाले १० प्रमुख श्लोक
1. भगवद गीता के २.१४ मे भगवान कहते है –
“मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्यस्तस्तितिक्षस्व भारत ॥
हे कुन्ती पुत्र, सुख और दुःख का अस्थायी रूप से प्रकट होना और समय आने पर उनका लुप्त हो जाना सर्दी और गर्मी की ऋतुओं के प्रकट होने और लुप्त हो जाने के समान है। हे भरतवंशी , वे इंद्रिय बोध से उत्पन्न होते हैं, और किसी को परेशान हुए बिना उन्हें सहन करना सीखना चाहिए।
यह हमारे जीवन मे अत्यंत आवश्यकश्लोक है हम थोड़े से सुख से आनंदित हो जाते है तथा सोचने लगते है यह स्थायी है, परन्तु यदि हमारे जीवन मे कोई विपदा आ जाती है तो हम उसे सहने मे असक्षम होते है | श्रीकृष्ण भगवद गीता मे यही बताते है यह सुख और दुःख क्षणिक होते है तथा हमें इन्हें अविचल भाव से सहन करना सीखना चाहिए और यह तभी संभव होगा जब हम भगवद्गीता का निरंतर अध्ययन करेंगे |
2.भगवद्गीता के २.७१ मे भगवान कहते है
“विहाय कामाण्यः सर्वान्पुमंशचरति निष्स्पृहः।
निर्ममो निरहंकार स शांतिमधिगच्छति ॥ “
जिस व्यक्ति जिसने इंद्रिय तृप्ति के लिए सभी इच्छाओं को त्याग दिया है, जो इच्छाओं से मुक्त रहता है, जिसने स्वामित्व की सभी भावनाओं को त्याग दिया है और झूठे अहंकार से रहित है – केवल वही वास्तविक शांति प्राप्त कर सकता है।
इस श्लोक मे भगवान बताते है कि व्यक्ति को अपनी इन्द्रियों कि तृप्ति के लिए कार्य नहीं करना चाहिए, हमारी इच्छाये अंनत है और इन्हें पूरा करना संभव नहीं है | इसलिए हमें अपनी इच्छा के लिए कार्य न करके कृष्ण को प्रसन्न करने का कार्य करना चाहिए तभी हमे शांति मिल सकती है |
3 .भगवद्गीता के ४.३९ मे भगवान कहते है
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिमचिरेणाधिगच्छति ॥
जो श्रद्धालु दिव्यज्ञान मे समर्पित है और जो अपनी इंद्रियों को वश में करता है, वह इस तरह का ज्ञान प्राप्त करने के लिए पात्र है, और इसे प्राप्त करने के बाद वह शीघ्र ही सर्वोच्च आध्यात्मिक शांति प्राप्त कर लेता है।
जो व्यक्ति श्रीकृष्ण मे दृढविश्वास रखता है वही कृष्णभवनाभावित ज्ञान को प्राप्त कर सकता है | इन्द्रियों कि तुलना घोड़े से कि जाती है जो कि इधर उधर भाग रहे है | जब तक व्यक्ति इन्हें वश मे रखकर कृष्णा के बारे मे ज्ञान प्राप्त करने कि कोशिश नहीं करता है तब तक उसे शांति नहीं मिल सकती है | यदि हम भगवान के बारे मे ज्ञान प्राप्त कर निरंतर भगवान के नाम का जाप करे तभी हमारे हृदय कि मलिनता दूर हो सकती है तथा व्यक्ति को शांति मिल सकती है |
4.भगवद गीता के ५.१२ मे भगवान कहते है
युक्त: कर्मफलं त्यक्त्वा शांतिमापनोति नैष्ठिकम्।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते॥
निश्चल भक्त शुद्ध शांति प्राप्त करता है क्योंकि वह समस्त कर्मफलो को मुझे समर्पित कर देता है, किन्तु जो व्यक्ति भगवान से युक्त नहीं है और जो अपने श्रम का फलकामी है, वह बंध जाता है |
कृष्ण चेतना वाले व्यक्ति और शारीरिक चेतना वाले व्यक्ति के बीच अंतर यह है कि पहला कृष्ण से जुड़ा होता है जबकि दूसरा अपनी गतिविधियों के परिणामों से जुड़ा होता है। जो व्यक्ति कृष्ण से जुड़ा हुआ है और केवल उनके लिए काम करता है वह निश्चित रूप से एक मुक्त व्यक्ति है, और उसे अपने काम के परिणामों के बारे में कोई चिंता नहीं है | लेकिन जो इंद्रियतृप्ति के लिए लाभ की गणना में उलझा हुआ है, उसे वह शांति नहीं मिल सकती। यह कृष्ण चेतना का रहस्य है – यह अहसास कि कृष्ण के अलावा कुछ नहीं है, शांति तथा अभय का मंच है
5. भगवद्गीता ५.२९ मे भगवान कहते है
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शांतिमृच्छति ॥
मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्यो का परम भोक्ता,समस्त लोको तथा देवताओ का परमेश्वर एवं समस्त जीवो का उपकारी एवं हितैषी जानकर मेरे भावनामृत से पूर्ण से पुरुष भौतिक दुखो शांति लाभ करता है |
माया के वशीभूत बद्ध आत्माएं भौतिक संसार में शांति पाने के लिए उत्सुक हैं। लेकिन वे शांति का सूत्र नहीं जानते, जो भगवद गीता के इस भाग में बताया गया है । भगवान कृष्ण समस्त मानवीय कर्मो के भोक्ता है अत: मनुष्य को चाहिए कि प्रत्येक वस्तु भगवान की दिव्य सेवा मे अर्पित कर दे क्योंकि वे ही समस्त लोको तथा उनमे रहने वाले देवतओं के स्वामी है | माया के वशीभूत होकर, जीव उन सभी चीजों के स्वामी बनने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन वास्तविकता तो यह है की सर्वत्र भगवान की माया का प्रभुत्व है | जीव हमेशा प्रकृति के कठोर अनुशासन के अंतर्गत आता है | जब तक कोई इन तथ्यों को नहीं समझ लेता, व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से शांति प्राप्त करना संभव नहीं है|
6. भगवद्गीता ६.६ मे भगवान कहते है
बंधुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जित:।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ॥
जिसने मन पर विजय प्राप्त कर ली है, उसके लिए मन सबसे अच्छा मित्र है; लेकिन जो ऐसा करने में असफल रहा, उसका मन ही सबसे बड़ा शत्रु बना रहेगा।
किसी भी योगाभ्यास करने से पहले अपने मन को नियंत्रित करना अत्यंत आवश्यक है | मन से ही हम सुख और दुःख का अनुभव करते है तथा मन ही है जो हमें किसी परिस्थति मे सफल और पराजित अनुभव कराता है | अत: कृष्णभावनामृत द्वारा मन को सदैव कृष्ण कि सेवा मे लगाना चाहिए इससे भौतिक प्रकृति व्यक्ति को प्रभावित नहीं करेगी |
7. भगवद्गीता ९.३१ मे भगवान कहते है
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छन्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानिहि न मे भक्त: प्रणश्यति ॥
वह शीघ्र ही धर्मात्मा बन जाता है और स्थायी शांति प्राप्त करता है। हे कुन्तीपुत्र, निडर होकर घोषणा कर दो कि मेरे भक्त का कभी विनाश नहीं होता।
यहाँ ये श्लोक भक्तो के लिए कहा गया है जिन्होंने अपना पूर्ण जीवन भगवान की सेवा मे अर्पित कर दिया है भगवान इनका विशेष ध्यान रखते है | अगर भक्तो से कोई भी गलती हो जाती है तो वह स्वयं उन्हें दंड देते है | तो जो भी भक्ति मे लगा हुआ है तथा जिनका मन निरंतर भगवान के स्मरण से शुद्ध हो चूका है उन्हें निश्चित रहना चाहिए भगवान उनका विशेष ध्यान रखते है |
8. भगवद्गीता ९.३४ मे भगवान कहते है
मन्मनाभवमद्भक्तोमद्याजीमांनमस्कुरु |
मामेवैष्यसियुक्त्वैवमात्मनंमत्परायणः ||
अपने मन को मेरे नित्य चिन्तन में लगाओ, मेरे भक्त बनो, मुझे नमस्कार करो और मेरी ही पूजा करो | इस प्रकार मुझमें पूर्णतया तल्लीन होने पर तुम निश्चित रूप से मुझको इस श्लोक मे भगवान बताते है यदि व्यक्ति भवबंधन से छुटना चाहता है तो उसका एकमात्र साधन कृष्णभावनामृत है |अतः मनुष्य को कृष्ण के आदि रूप में मन को स्थिर करना चाहिए, उसे अपने मन में यह दृढ़ विश्र्वास करके पूजा करने में प्रवृत्त होना चाहिए कि कृष्ण ही परम भगवान हैं |मनुष्य को श्रवण, कीर्तन आदि नवधा भक्ति में प्रवृत्त होना चाहिए | शुद्ध भक्ति मानव समाज की चरम उपलब्धि है |
9. भगवद्गीता १८.६६ मे भगवान कहते है
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा श्रुचः ||
समस्त प्रकार के धर्मों का परित्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार कर दूँगा । डरो मत ।
इस श्लोक मे भगवान बताते है भक्तियोग के अनुसार मनुष्य हो वही धर्म स्वीकार करना चाहिए, जिससे अन्ततः भगवद्भक्ति हो सके | समाज में अपनी स्थिति के अनुसार कोई एक विशेष कर्म कर सकता है, लेकिन यदि अपना कर्म करने से कोई कृष्णभावनामृत तक नहीं पहुँच पाता,तो उसके सारे कार्यकलाप व्यर्थ हो जाते हैं | जिस कर्म से कृष्णभावनामृत की पूर्णावस्था न प्राप्त हो सके उससे बचना चाहिए | मनुष्य को विश्र्वास होना चाहिए कि कृष्ण समस्त परिस्थितियों में उसकी सभी कठिनाइयों से रक्षा करेंगे | इसके विषय में सोचने की कोई आवश्यकता नहीं कि जीवन-निर्वाह कैसे होगा? कृष्ण इसको सँभालेंगे |
मनुष्य को चाहिए कि वह अपने आप को निस्सहाय माने और अपने जीवन की प्रगति के लिए कृष्ण को ही अवलम्ब समझे | पूर्ण कृष्णभावनामृत होकर भगवद्भक्ति में प्रवृत्त होते ही वह प्रकृति के समस्त कल्मष से मुक्त हो जाता है | धर्म की विविध विधियाँ हैं और ज्ञान, ध्यानयोग आदि जैसे शुद्ध करने वाले अनुष्ठान हैं, लेकिन जो कृष्ण के शरणागत हो जाता है, उसे इतने सारे अनुष्ठानों के पालन की आवश्यकता नहीं रह जाती | कृष्ण की शरण में जाने मात्र से वह व्यर्थ समय गँवाने से बच जाएगा | इस प्रकार वह तुरन्त सारी उन्नति कर सकता है और समस्त पापों से मुक्त हो सकता है |
10. भगवद्गीता १८.७८ मे संजय कहते है
यत्र योगेश्र्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः |
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवो नीतिर्मतिर्मम ||
जहाँ योगेश्र्वर कृष्ण है और जहाँ परम धनुर्धर अर्जुन हैं, वहीँ ऐश्र्वर्य, विजय, अलौकिक शक्ति तथा नीति भी निश्चित रूप से रहती है | ऐसा मेरा मत है |
यह श्लोक इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें संजय पूरी भगवद्गीता सुनने के बाद वह यह घोषणा करते है की धृतराष्ट्र को अपने पक्ष की विजय की आशा नहीं रखनी चाहिए | विजय तो अर्जुन के पक्ष की निश्चित है, क्योंकि उसमें कृष्ण हैं | इससे हमे यह शिक्षा मिलती है कि सांसारिक रूप से कोई भी कितना शक्तिशाली या विजयी क्यों न हो अंतिम विजय तो भगवान के भक्त कि ही होती है क्योंकि उसने भगवान की भक्ति कि है तथा वह भगवान के धाम को प्राप्त कर इस जन्म मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिलेगी | तथा सदा भगवान कृष्ण को अपने हृदय मे धारण करके शाश्वत शांति कि प्राप्ति होगी | भगवान कृष्ण मिलाने के बाद उसकी कोई इच्छा शेष नहीं रहेगी तथा वह पूर्ण संतुष्ट तथा प्रसन्न अवस्था मे अपना जीवन पूर्ण करेगा |