भगवद गीता के अनुसार हमारा धर्म और कर्तव्य – Hare Krishna भगवद गीता के अनुसार हमारा धर्म और कर्तव्य भगवद्गीता को गीतोपनिषद भी कहा जाता है। यह वैदिक ज्ञान का सार है और वैदिक साहित्य का सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपनिषद,है ।
भगवत गीता के वक्ता भगवान श्रीकृष्ण है।भगवद्गीता के प्रत्येक पृष्ठ पर उनका उल्लेख भगवान् के रूप में हुआ हैं। भगवान ने भी स्वयं भगवदगीता में अपने को परम पुरुषोत्तम भगवान कहा और ब्रह्म-संहिता तथा अन्य पुराणो में विशेषत्या श्रीमद भागवतम जो भागवत पुराण के नाम से विख्यात है, वे इसी रूप में स्वीकार किये गये है (कृष्णुस्तु भगवान स्वयम्)| अतएव भगवद्गीता हमे भगवान ने जैसे बताई है, वैसे ही स्वीकार करनी चाहिए।
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भगवद गीता के अनुसार हमारा धर्म और कर्तव्य की व्याख्या
अन्तराष्ट्रीय कृष्ण भावनामृत संघ के संस्थापक आचार्य एवं सम्पूर्ण विश्व में वैदिक ज्ञान के अद्वितीय प्रचारक “कृष्णकृपांमूर्ति, श्री श्रीमद् ए. सी भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद ‘धर्म’ के विषय पर प्रकाश डालते हुए यह स्पष्ट किए कि धर्म दो प्रकार के होते पशु धर्म एवं मानव धर्म। पशु धर्म अर्थात केवल आहार, निद्रा, भय, मैथुन । यह सामान्य है। धर्म अर्थात् जिसे कभी हम छोड़ नहीं सकते। परिस्थिति अनुसार हम आज इस ‘धर्म को अपना लिए, पुन: परिस्थिति, परिवर्तन के साथ कल अन्य धर्म को अपना लिए, इसे हम धर्म नहीं कह सकते हैं। धर्म प्रत्येक वस्तु विशेष की अपनी प्राकृतिक विशेषता होती हैं। जिस प्रकार चीनी को विशेषता उसकी मिठास, नमक की विशेषता उसकी नमकीन है अर्थात् यह उसकी धर्म हैं। साँप का धर्म ही होता है काटना , पानी का धर्म उसकी तरलता है, आग का धर्म उसकी ज्वलनशीलता है। इसे हम किसी भी परिस्थिति में इससे अलग नही कर पाएंगे क्योंकि यह इसका धर्म है।
अतः प्रश्न अब यह है कि हम जीवो का धर्म क्या है? हमारी प्राकृतिक विशेषताएँ क्या है? मानव जीवन के लिए धर्म की व्याख्यान करते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु ने यह प्रतिपादित किए हैं की “जीतेरो स्वरूप होय नित्य कृष्ण दास” (चैतन्य चरितामृत मध्य 20-108-109) । सर्वोच्च पुरुषोत्तम श्री कृष्ण का सदा सेवक बने रहना ही हमारा धर्म है। मनुष्य इसको कभी त्याग नहीं सकते। अगर मनुष्य अपने चीरारित स्वरूप को भूल जाए अर्थात् वे श्रीकृष्ण की सेवा न करें तो उन्हें माया का दास बनना ही पड़ता है। सेवा तो करनी ही पड़ती हैं। कोई भी यह नहीं कह सकता है कि मैं किसी की सेवा नही करता । हमारी जीवन की मूल आधार स्तम्भ ही सेवक प्रवृत्ति हैं। इसे ही धर्म कहा जाता है।
भगवत गीता के अध्याय 5 के श्लोक संख्या 29
भगवद्गीता के पठन से हम जीव अपने इस मनुष्यरूपी जीवन के परम सत्य से अवगत् हो पाते है कि प्रत्येक जीव एक सेवक है और हमारा सेव्य परम भोक्ता परम भगवान् श्रीकृष्ण हैं। इस संदर्भ में भगवत गीता के अध्याय 5 के श्लोक संख्या 29 में भगवान स्वयं को परम भोक्ता घोषित करते हुए कहते हैं कि :-
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् ।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥ २९ ॥
“अर्थात् मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परम भोक्ता, समस्त लोकों तथा देवताओं का परमेश्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितैषी जानकर मेरे भावन्नामृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुखों से शान्ति लाभ- करता है। अत: प्रस्तुत श्लोक के तात्पर्य से यह स्पष्ट हो जाता है कि अगर हम जीव अपना, सम्पूर्ण ध्येय केवल परम भोक्ता श्रीकृष्ण की तुष्टि में लगाए तो हम जीव सभी विडम्बनाओं से मुक्त हो पाएगें। शांति का सबसे बड़ा सूत्र यही है कि भगवान श्रीकृष्ण समस्त मानवीय कार्यों के भोक्ता है। मनुष्यों को चाहिए कि प्रत्येक वस्तु भगवान की दिव्य सेवा में अर्पित करे क्योंकि वे ही समस्त लोकों तथा उनमें रहने वाले देवताओं के स्वामी है। भगवान् श्री कृष्ण को संतुष्ट करके ही हम जीव परम शांति प्राप्त कर पाएंगे । इस संदर्भ में हम अपने शरीर का ही उदाहरण ले, जैसे की हमारा एक अंगुली जो पूरे शरीर का एक अंश मात्र है।
एक अंश होने के नाते अंगूली का क्या कर्तव्य है? अंगुली का कर्तव्य केवल भोजन तैयार करना और उस भोजन को मुंह में डालना मात्र है| इसी प्रकार केवल उंगली ही नहीं, हमारे शरीर के सारे अंगों का केवल एक ही एक ध्येय होता हैं कि किस तरह शरीर के परम भोक्ता उदर की सेवा की जाय । शरीर के परम भोक्ता उदर की तुष्टि से ही सम्पूर्ण शरीर को पोषण मिलता है और शरीर कार्यशील रहता है| कभी भी शरीर का कोई एक अंश स्वयं को अकेले तुष्ट नहीं कर पाएगा | इस प्रकार यदि हम परम भोक्ता श्री कृष्ण की तुष्टि के लिए सदा तत्पर और कार्यशील रहे तो हमारा हमारा मानव देह रुपी जीवन पोषित होता रहेगा। और यही हमारा परम धर्म भी है। हम उनके अधीनस्थ जीवात्माएं उन्हे प्रसन्न ‘रखने के निमित्त सहयोग कहने के लिए हैं।
भगवान् श्रीकृष्ण भगवद्गीता में यह भी कहते है कि
“यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।”
अर्थात – जब भी और जहाँ भी धर्म का पतन होता है और अधर्म की प्रधानता होने लगती है, तब-तब मैं अवतार लेता हूँ|
अतः उपरोक्त श्लोक द्वारा भगवन श्रीकृष्ण हम जीवात्माओं को अपने अवतरित होने का कारण स्पष्ट करते हैं।
‘परम पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण किसी धर्म विशेष अर्थात् हिन्दु धर्म, अथवा इसाई धर्म अथवा मुस्लिम धर्म की संस्थापना के लिए अपने चेतन जगत से इस जड़ जगत पर अवतरित नहीं होते है। जब भी अधर्म की प्रधानता तथा धर्म का लोप होने लगता है, तो परम दिव्य पुरुष भगवान श्रीकृष्ण स्वेच्छा से प्रकट होते है। केवल भगवान ही किसी केवल धर्म की व्यवस्था कर सकते है। अतः धर्म के नियम भगवान के प्रत्यक्ष आदेश है (धर्मं तु साक्षाद्भगवत्प्रणीतं) । भगवत गीता में आद्योपांत इन्ही नियमों का संकेत हैं। वे प्रत्येक अवतार लेने पर धर्म के विषय में उतना ही कहते हैं जितना कि उस परिस्थिति: • में जन समुदाय विशेष समझ सकता है। लेकिन उद्देश्य एक ही रहता. हैं – लोगों को ईश्वर भावनाभावित करना तथा धार्मिक नियमों के प्रति आज्ञाकारी बनाना ।
भगवान् श्रीकृष्ण भगवद्गीता में यह भी कहते है कि
धर्म के विषय को स्पष्ट करते हुए, भगवतगीता में आधार स्तम्भ रुपी गीता सार श्लोक के द्वारा अपने परम शिष्य अर्जुन को परम मूल ज्ञान प्रस्तुत करते हुए कहते है कि-
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच: ॥ ६६
भगवान श्रीकृष्ण जोकि इस सम्पूर्ण जगत तथा सम्पूर्ण जड़ एवं चेतन वस्तुओं के परम पिता, सृष्टिकर्ता, पालनकर्ता सबकुछ हैं। उन्होंने गीतासार रूपी श्लोक में यह स्पष्ट रूप से कहा है कि हमे सभी धर्मो को त्याग कर केवल उन्हीं का शरण ग्रहण करना हैं। । इसी से ही हमारे अनेकानेक जन्मों के उपरांत कृपाप्राप्त रूपी इस मानव जीवन का उद्देश्य सम्पूर्ण होता है। भगवदगीता के अनुसार यहीं हमारा परम धर्म है और इसी के शरणं मात्र से ही हम मानव भगवद धर्म के पथ पर अग्रसर हो पाएगे। किसी प्रकार की भौतिक क्लेश चिंता अनादि अवांछनीय स्थिति ऐसे भगवद्भक्त के धर्मरूपी पथ पर अग्रसर होने से बाधा उत्पन्न नहीं कर पाएगा क्योंकि उस भक्त की सम्पूर्ण रक्षा का दायित्व स्वयं इस जड़ जगत: के एकमात्र स्वामी परमपुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण की हैं। यहीं भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा भगवद्गीता द्वारा दी गई हम जीवात्माओं के लिए भगवदधर्म का व्याख्यान है।
इसी धर्म का पालन करना ही हमारा परम कर्तव्य भी हैं।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।