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जो अंधकार का निरोध करता है, उसे गुरु कहा जाता है ।
सच्चा गुरु भगवान का प्रतिनिधि होता है, और वह केवल भगवान के बारे में ही कहता है और कुछ नहीं। सच्चा गुरु वही है , जिसकी रुचि भौतिकवादी जीवन में नहीं होती। वह केवल और केवल भगवान की ही खोज में रहता है , यदि गुरु भगवान का प्रतिनिधित्व कर रहा है तो वह गुरु है।
केवल एक गुरु (सिद्ध पुरुष), जो ईश्वर को जानता है, दूसरों को सही ढंग से ईश्वर के बारे में शिक्षा दे सकता है। व्यक्ति को अपनी दिव्यता को पुनः पाने के लिए एक ऐसा ही सद्गुरु चाहिए। जो निष्ठापूर्वक सद्गुरु का अनुसरण करता है वह उसके समान हो जाता है, क्योंकि गुरु अपने शिष्य को अपने ही स्तर तक उठने में सहायता करता है।
महाभारत के युद्ध के समय जब अर्जुन युद्ध करने से मना करते हैं तब श्री कृष्ण उन्हें उपदेश देते है और कर्म व धर्म के सच्चे आध्यात्मिक ज्ञान से अवगत कराते हैं। स्वाभाविक प्रश्न यह उठता है कि हम आध्यात्मिक ज्ञान कैसे प्राप्त कर सकते हैं? इसका उत्तर श्रीकृष्ण इस श्लोक में देते हैं।
वे कहते हैं:
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया |
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिन्सतत्त्वदर्शिन: ||
(BG 4.34)
आध्यात्मिक गुरु के पास जाकर सत्य को जानें। श्रद्धा से उससे पूछो और उसकी सेवा करो। ऐसे प्रबुद्ध संत आपको ज्ञान प्रदान कर सकते हैं क्योंकि उन्होंने सत्य को देखा है।
श्री कृष्ण कहते हैं: 1) एक आध्यात्मिक गुरु के पास जाओ। 2) उससे विनम्रतापूर्वक पूछताछ करें। 3) उसकी सेवा करना।
गुरु शिष्य सम्बन्ध मित्रता की उच्चतम अभिव्यक्ति है-क्योंकि यह नि:शर्त दिव्य प्रेम और बुद्धिमता पर आधारित होता है। ईश्वरीय खोज में सफल होने के लिए, जैसा कि जीवन के हर पहलू में होता है, ईश्वरीय नियमों का पालन करना अनिवार्य है। विद्यालय में उपलब्ध धर्मनिरपेक्ष ज्ञान को समझने के लिए हमें उस शिक्षक से सीखना होता है जो उस विषय का ज्ञाता हो। उसी प्रकार आध्यात्मिक तथ्यों को समझने के लिए ईश्वर प्राप्त गुरु या आध्यात्मिक शिक्षक का होना आवश्यक है।
चूँकि गुरु भगवान के सबसे विश्वसनीय सेवक होते हैं, इसलिए गुरु को वही सम्मान दिया जाता है जो हम भगवान को अर्पित करते हैं। भगवान हमेशा भगवान हैं, गुरु हमेशा गुरु हैं। शिष्टाचार के रूप में, भगवान पूजनीय भगवान हैं, और गुरु पूजा करने वाले भगवान (सेवक-भगवान) हैं।
आध्यात्मिक जगत में प्रमुखतः चार प्रकार के गुरु माने जाते हैं–
१) दीक्षा-गुरु– जो वैदिक विधि से शिष्य को वैदिक मंत्र प्रदान करते हैं
२) शिक्षा-गुरु– जो सत्संग के द्वारा भक्ति का उपदेश प्रदान करते हैं
३) चैत्य-गुरु– सभी जीवों के ह्रदय में स्थित परमात्मा ही सब को अच्छे-बुरे का ज्ञान प्रदान करते हैं– वे ही सबके चैत्य-गुरु हैं|
४) पथ-प्रदर्शक गुरु– वे जो हमें यथार्थ गुरु का आश्रय दिलवाते हैं|
चैतन्य चरितामृत में आता है–
किब विप्र किब न्यासी शूद्र केने नय ।
जेइ कृष्ण तत्त्ववेत्ता सेइ गुरु हय ॥
चाहे कोई ब्राह्मण हो, संन्यासी हो, अथवा किसी ने शूद्रों के कुल में ही क्यों जन्म ग्रहण किया हो। किन्तु यदि वह व्यक्ति कृष्णतत्त्व के अनुभवी हैं तो वह मनुष्यमात्र के गुरु हैं।
गुरु कोई साधारण इंसान नहीं होता है। गुरु ही एक जरिया है जिसके बताये हुए पद चिन्हो पर चलने से कठिन से कठिन मुकाम को हासिल किया जा सकता है। इसीलिए हमेशा गुरु का पूर्ण सम्मान करे। गुरु की आज्ञा का पालन करना चाहिए। एक गुरु ही हमें समाज में अपनी पहचान बनाने की शिक्षा देता है। प्राचीन समय से लेकर वर्तमान तक गुरु का स्थान सर्वोपरि रहा है। जीवन में अगर गुरु का आशीर्वाद हो तो बड़ी से बड़ी कठिनाईयों से मुकाबला किया जा सकता है।