भगवद्गीताकिसेप्रोत्साहितकरतीहै – स्वेच्छायाभाग्य?

स्वेच्छा और भाग्य, दोनों ही कर्म से जुड़े हुए हैं। ‘कर्म’ शब्द का प्रयोग विभिन्न अर्थों में किया जाता है — एक अर्थ में यह कार्य को दर्शाता है, और दूसरे अर्थ में वह फल जो हम भोग रहे हैं। यहाँ कर्म का प्रयोग उसके कार्मिक प्रभाव के रूप में हुआ है — अर्थात जो कर्म हमने पूर्व जन्म में किए, आज उनका फल भोग रहे हैं।

कुछ लोग कर्मप्रधान होते हैं — उनके लिए कर्म ही सब कुछ है, कर्म ही पूजा है। वहीं कुछ लोग भाग्य पर अधिक निर्भर रहते हैं और कहते हैं कि “जो भाग्य में होगा, वही मिलेगा।” वास्तव में हमें जो भी फल प्राप्त होता है, उसमें हमारे भाग्य और स्वेच्छा, दोनों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इसके साथ-साथ दैव (ईश्वरीय तत्व) और काल का भी प्रभाव होता है।

इसे हम एक फसल के उदाहरण से समझ सकते हैं — बीज डालना और पानी देना हमारे हाथ में है (स्वेच्छा), लेकिन बारिश होगी या नहीं, यह हमारे हाथ में नहीं है (भाग्य)। इसी प्रकार, परीक्षा की तैयारी कर रहा विद्यार्थी कभी-कभी बहुत मेहनत करने के बाद भी सफल नहीं होता, जबकि कोई कम पढ़कर भी पास हो जाता है। जहाज चलाना कर्म है, पर समुद्र में कैसी लहरें आएँगी, यह भाग्य है।

इसी प्रकार इसे घोड़े के उदाहरण से भी समझा जा सकता है — यदि घोड़ा किसी अस्तबल में बंधा है, तो यह उसका भाग्य है; परंतु उस सीमा के भीतर वह क्या करता है, यह उसकी स्वेच्छा है। महाभारत में हम देखते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण किसी की भी स्वेच्छा में हस्तक्षेप नहीं करते। वे शांतिदूत बनकर दुर्योधन को समझाने जाते हैं, परंतु अपने विचार उस पर थोपते नहीं। उसे स्वेच्छा दी जाती है कि वह पांडवों को राज्य लौटा दे या युद्ध करे।

इसी प्रकार, भगवद्गीता में भगवान अर्जुन को क्षत्रिय धर्म समझाते हैं — यदि गुरु या संबंधी अधर्म का साथ दें, तो उनसे युद्ध करने में पाप नहीं है। भगवान अर्जुन को ज्ञान प्रदान करते हैं, पर अपनी इच्छा उस पर थोपते नहीं।

भगवद्गीता में स्पष्ट कहा गया है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्म, भाग्य और प्रकृति के गुणों के प्रभाव में रहता है, फिर भी उसे निर्णय लेने की स्वतंत्रता दी गई है। यदि यह स्वेच्छा न हो, तो मनुष्य एक पत्थर के समान होता — क्योंकि पत्थर के पास कोई स्वेच्छा नहीं होती।

यह ऐसे ही है जैसे चित्रकारी के लिए कागज़ का आकार और रंग तो निश्चित हैं, पर उस पर क्या चित्र बनाना है, यह आपके हाथ में है। जीवन में हमें जो परिस्थिति, परिवार, और गुण मिले हैं — यह सब निश्चित है; पर इन सीमाओं के भीतर हम क्या करते हैं, यही हमारी स्वेच्छा है।

भगवद्गीता में भगवान कहते हैं कि यह भौतिक जगत उनकी पराशक्ति ‘माया’ द्वारा रचित है, जिसे पार करना अत्यंत कठिन है; परंतु जो भक्ति करते हैं, वे इसे सहज ही पार कर लेते हैं।

भगवद्गीता 14.26

मां योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते
गुणान् समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते।

जो व्यक्ति सभी परिस्थितियों में अविचलित भाव से भक्ति में स्थित रहता है, वह प्रकृति के तीनों गुणों से ऊपर उठकर ब्रह्मभाव को प्राप्त करता है।

यह श्लोक बताता है कि भक्तियोग के माध्यम से मनुष्य प्रकृति के तीनों गुणों से ऊपर उठ सकता है। यही हमारी असली स्वतंत्रता है — इन गुणों से परे जाना। जब तक हम इन गुणों में बंधे रहेंगे, तब तक न तो सच्ची स्वतंत्रता होगी, न ही वास्तविक स्वेच्छा। हम एक बंदी की तरह जीवन व्यतीत करेंगे।

भगवान हमें भगवद्गीता के माध्यम से पुकारते हैं —
“भक्ति-योग द्वारा इस बंधन से बाहर निकलो।”
यही स्वेच्छा का सर्वोच्च उपयोग और जीवन का परम उद्देश्य है।

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